हममे से कई लोग
भाषा को सम्प्रेषण का साधन मानने के इतने ज्यादा आदी हो चुके है कि हम सोचने,
महसूस करने और चीजों से जुड़ने के साधन के रूप
में भाषा की उपयोगिता को अक्सर भूल जाते है। भाषा के उपयोग का यह बड़ा दायरा उन
लोगो के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जो छोटे बच्चों के साथ काम करना चाहते है। शिशु के
व्यक्तित्व और उसकी क्षमताओं के विकास को आकार देने में भाषा का विशेष भूमिका
निभाती है। एक सूक्ष्म किन्तू मजबूत ताकत की तरह भाषा संसार के प्रत्येक बच्चे के
दृष्टिकोण, उसकी रूचियों, क्षमताओं, यहां तक कि मूल्यों और मनोवृत्तियों को भी आकार देती है।
लेकिन पहले हमें
एक एसी बात साफ कर लेनी चहिए जिस पर अक्सर काफी विवाद छिड़ा रहता हें स्कूली
अध्यापक भाषा के नाम पर ’हिन्दी’ और ’अंग्रेजी’ या अन्य किसी भाषा को एक स्कूली
विषय की तरह लेने के आदी है। इसलिए वे सोचेंगे कि यह पुस्तक किसी खास भाषा की
पढ़़़़़ाई के बारे में होगी। दूसरी तरफ विशेषज्ञ हैं जो बच्चे की ’पहली भाषा’
इत्यादि मे गहरे भेद करने के आदी है। अध्यापक और विशेषज्ञ दोनो सोचते है कि भाषा
की शिक्षा पर किसी किताब की शुरूआत एक खास भाषा के नियमों, उसकी आम संरचनाआंे, शब्दावली इत्यादी के विवरण से होनी चाहिए।
दुनिया का हर
बच्चा - चाहे उसकी मातृभाषा कोई भी हो-भाषा का इस्तेमाल तुरंत कुछ उद्देश्यों की
प्राप्ति के लिए करता है। एक बड़ा उद्देश्य है दुनिया को समझाना, और इस उद्देश्य की प्रप्ति के लिए भाषा एक
बढि़या औजार का काम देती है। जब तक हम बच्चे की निगाह से देखने और बच्चे की
जिन्दगी में भाषा की भूमिका को समझने में असमर्थ रहते है, तब तक हम अध्यापक, माता-पिता या देख रेख करने वालों के रूप में अपनी भूमिका ठीक से तय नहीं कर
सकते।
भाषा और करना
बच्चों की भाषा
का सम्बन्ध उन अनुभवों से है जिन्हे वे अपने हाथों और शरीर से स्वंय करते हैं और
उन वस्तूओं से भी है जिनके सम्पर्क में वे आते है। बचपन में शब्द और क्रियाकलाप
साथ-साथ चलते हैं। क्रियाकलाप और अनुभावों को आत्मसात करने और व्यक्त करने के लिए
शब्दो की जरूरत होती हैं। कोई अनुभव जब पूरा हो चुकता है, उसके बाद भी वह शब्दो के जरिए उपलब्ध रहता है। बच्चे जिन चीजों के सम्पर्क मे
आते है उनसे और धनिष्ठ सम्बन्ध बनाने के लिए वे शब्दो की मदद लेते है। दूसरी तरफ,
ऐसे शब्द, जो बच्चों के सक्रिय अनुभवों और वस्तुआंे से जुड़े नहीं
होते, उनके लिए खाली और बेजान
रहते हंै।
’बिल्ली’,
’दौड़ना’, ’गिरना’, ’नीला’, ’नदी’ और ’खुरदरा’ जैसे शब्द यदि पहले-पहल किसी
क्रियाकलाप या अनुभव के सन्दर्भ मे नहीं आए तो उनका अर्थ बच्चे के लिए बहुत सतही
रहेगा। केवल एक सक्रिय अनुभव के बाद ये शब्द एक बिम्ब जुड़ते है और भविष्य में
सार्थक इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होते है।
बच्चे के शारीरिक
अनुभवों और शब्दों के बीच यह सम्बन्ध बड़ों, विशेषतः अध्यापकों पर एक निराली जिम्मेदारी डालता हैं एक
अध्यापक के रूप में आप शायद यह उम्मीद करते होंगे कि माता-पिता ने अपने बच्चों का
तरह-तरह के अनुभव पहले ही करा दिए होंगे। पर यह बात अधिकांश माता-पिता पर लागू
करना मुशिकल है। ज्यादतर माता-पिता में या तो इतना विश्वास नहीं होता कि वे छोटे
बच्चों को कई तरह की चीजों के सम्पर्क मे लाए, या फिर उनके पास
इतना वक्त नही होता कि अपनी दिनचर्या मंे चीजों को देखने और करने की बच्चों
की धीमी रफ्तार को जगह दे सकें। बड़े अक्सर काफी परेशान हो जाते हैं अगर बच्चा नल
मे पानी की धारा से आधे धन्टे खेलता रहे
या सारे बर्तनो को फर्श पर बिखेर दे या छाते को सैकड़ो बार खोले और बन्द करें।
कभी-कभी चीजो को या फिर बच्चे को नुकसान या चोट से बचाने की खातिर बडे़ कुछ इने-गिने
अनुभवों को छोड़ कर बाकी पर पाबन्दी लगा देते है।
माता -पिता ने जो
भी किया हो या न किया हो, अध्यापक की
जिम्मेदारी स्पष्ट है। उसे ऐसा वातावरण पैदा करना है जिसमें बच्चे भाषा को लगातार
जीवन के अनुभवों और चीजों से जोड़ सकें। ऐसा करने के लिए ये बातें मददगार होंगीः
·
बच्चे स्कूल में
कई तरह की वस्तुएं (जैसे पत्तियां, पत्थर, पंख, तिनके, टूटी-फूटी चीजे) लाएं और
उनके बारे में बात करें, पढ़ें, लिखें।
·
बच्चो से उन
अनुभवों के बारे मे कहने, लिखने और पढ़ने
को कहा जाए जो उन्हें स्कूल के बाहर हुए हो।
·
बच्चों को कक्षा
से बाहर ले जाए जिससे वे स्कूल के इर्द-गिर्द फैली दुनिया की तमाम छोटी-मोटी चीजों
(जैसे टूटी हुई पुलिया, कीचड़ से भरा
गड्ढा, मरा हुआ कीड़ा, घोंसले में अंडे) बारीकी से देख सकें। स्कूल के
पड़ोस की ऐसी शोध-यात्राएं भाषा सीखने के लिए मूल्यवान सामग्री दे सकती है।
ऐसे स्कूल मे,
जहां बच्चे अपने हाथों से तरह-तरह के काम नही
कर पाते, जहां वे अधिकांशतः बैठे
और अध्यापक की बातें सुनते रहते हैं, और जहां छूने, उलटने-पुलटने,
तोड़ने और ठीक करने के लिए चीजें नहीं होती,
भाषा के कौशल का विकास अच्छी तरह नहीं हो सकता।
भाषा क्या-क्या
काम करती है ?
जिन लोगों ने
बच्चों की भाषा का अध्ययन किया है, उनके अनुसार
बच्चे बातचीत की बुनियादी क्षमता हासिल करते ही भाषा का प्रयोग नाना किस्म के
उद्देश्यों के लिए करना शुरू कर देते है। इनमें से कुछ उद्देश्य इस प्रकार हैः
1. अपने काम का संचालन
बच्चे कुछ करने
के साथ-साथ उसके बारे में बात करते जाते है। यह बात अपनी गतिविधि पर एक तरह की
निजी टीका होती है। सम्भ्वतः यह टीका उन्हें गतिविधि कुछ और देर तक जारी रखने में
मदद देती है और उनकी दिलचस्पी बनाए रखती है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि टीका कोई सुन
रहा है या नहीं। सम्भव है गीली रेत में सुरंग या किले बनाते हुए छोटे बच्चों के दल
में हर बच्चा अपनी अपनी टीका अलग चालू रखे। हो सकता है, यह टीका दूसरे को सिर्फ कुछ बुदबुदाहट की तरह सूनाई दे।
तीन से आठ साल के
बच्चे को उस वक्त गौर से देखिए जब वह अकेले कुछ कर रहा हो या खेल रहा हो। वह जो
कहे, ध्यान से सुनिए। इसी तरह
कई और बच्चों को, जिनमें
लड़के-लड़कियां दोनो हों और अलग-अलग उम्र के हों, देखिए।
क्या आपने उनकी
एकांत ’बात’ में कोई व्यक्तिगत फर्कपाया ? क्या यह ’बात’ बच्चों को एक काम में रूचिपूर्वक लगे रहने में मदद देती है ? क्यों ?
2. दूसरों के क्रियाकलाप और ध्यान का संचालन
भाषा के इस उपयोग
से माता-पिता और अध्यापक के रूप में हम अच्छी तरह परिचित है क्योंकि हमारा बहुत-सा
समय बच्चों की मांगों को पूरा करने में लगता है। अक्सर हम शारीरिक किस्म की मांगों
के प्रति सचेत रहते हैं, पर दूसरी तरह ही
मांग- जिनमें बौद्धिक और भावनात्मक मांगे शामिल है- भी महत्वपूर्ण हैं बच्चे अजीब
या आकर्षक चीजों की ओर ध्यान खींचने के लिए भाषा का इस्तेमाल करते है। उन्हें यह
अपेक्षा रहती है कि जिस चीज ने उनका ध्यान खीचा है वह उनकी बात सुनने वाले का
ध्यान भी खीचेंगी।
3. खेलना
अधिकांश बच्चों
के लिए शब्द ढाई साल की उम्र से खेल और आनन्द का एक प्रमुख साधन बन जाते है।
अलग-अलग स्वर में दुहरा कर, खींचतान कर और
विचित्र संधियों में जोड़ कर बच्चे शब्दों से खेलते हैं और खुश होते हैः
’दूध-जलेबी जग्गग्गा
पर इसमें है मग्गग्गा!’
’मै चम्मच में बाल्टी रखूंगा।
उससे कुंए का दूध निकालूंगा!’
अनुपयुक्त जगह पर
शब्द का प्रयोग करना उन्हें भाता है। उन्हें ऐसी कविताएं जल्दी से याद हो जाती है
जिनमें इसी तरह शब्दों की खीचतान की गई हो। आशय यह है कि छोटे बच्चे शब्दो को
खिलौनों की तरह इस्तेमाल करते हैं। शब्दों से खेलना बच्चों की रचनाशक्ति और ऊर्जा
को बाहर लाने में अद्भुत भूमिका निभा सकता है।
घर के अन्दर या
गली में अकेले या टोली बना कर खेलते-रस्सी कूदते, दौड़ते, उछलते, गंेद से टप्पा मारते हुए- बच्चे जो पंक्तियां
दुहराते है सुनिए।ं अपने इलाके में बच्चों के पारम्परिक खेलगीत इकट्ठे कीजिए। यदि
आपने मेहनत से काम किया तो सम्भव है कि आप आधुनिक ’मीडिया’ और भाषा की रूढि़ग्रस्त
शिक्षा के हमले से बच रहे खेलगीतों का एक छोटा -मोटा संग्रह बना सकें।
आपको जो खेलगीत
मिलें, उन्हे तरतीब से लिख
लीजिए। एक ही गीत के विविध रूपों को दूँढिए और दर्ज कर लीजिए आपको वहां व्याकरण की
गलती और शब्दावली की खींचताना नज़र आती हो, वहां सुधार कतई न कीजिए।
बच्चों के खेलगीत
भाषा के बेहद रचनात्मक और ताकतवर इस्तेमाल के निराले स्त्रोत हैं और वे भाषा के कई
बुनियाद कौशल (जैसे पढ़ना) सिखाने के बहुत उपयोगी साधन हैं।
बच्चों के कुछ
पारम्परिक खेलगीतों के नमूने हैः
’मरे को तुमने
क्यों मारा ’अक्कड़ बक्कड़
बम्बे बो
क्या लेता था नाम
तुम्हारा? अस्सी नब्बे
पूरे सौ
तबला बजाने दो सौ
में लागा धागा
आता है तो आने दो चोर
निकल के भागा।’
तबला में टौंका
बिजन डड़ांैका।
4. समझाना
बच्चो की बात का
उद्देश्य कई बार यह स्पष्ट करना होता है कि कोई चीज़ कैसे हुई। उदाहरण के तौर पर
यदि आप एक बच्चे से पूछे कि बारिश कैसे हुई तो शायद वह आपको बताएगा कि पहले आसमान
काले बादलों से धिर गया, फिर छोटी-छोटी
बूदें टपकने लगीं, फिर बारिश हुई जो
बाद मे इतनी तेज हो गई कि कोई चीज दिखाई तक न दे। घटनाक्रम बता कर बच्चा यह समझाता
है कि एक बड़ी घटना कैसे घटी।
भाषा के इसी
प्रयोग से कहानियां जन्म लेती है। इस दृष्टि से कहानियां चीजों की व्याख्या करने
का साधन होती हैं। जहिर है कि सब कहानियां चीजों की विश्वसनीय या वैज्ञानिक
व्याख्या नहीं करतीं। वे जीवन की व्याख्या करने की हमारी इच्छा की प्रतीक होती
हैं। जिस तरह बड़े, दुनिया की घटनाओं
या राजनीति की व्याख्या करने को उत्सुक रहते है, उसी तरह छोटे बच्चे भी जिन्दगी की घटनाओं की व्याख्या करना
चाहते है।
कोई चीज क्यों
शुरू हुई ? यह समझाने वाली कहानियां
इकट्ठी कीजिएं। इस तरह की कई कहानियां आपको
स्थानीय लोक कथाओं में मिलेगी। बारिश क्यों होती है या आदमी ने आग कैसे ढूंढी- ऐसी
एक कहानी पृष्ठ पांच पर दी गई है जो समझाती है कि हाथियों ने उड़ने की क्षमता कैसे
गंवाई।
आसमान में हाथी
बहुत पहले एक जमाने में
भारत के हाथी उड़ लेते थे। आज की तरह हाथी तब भी बहुत बडे़ होते थे। उनका रंग
बादलों की तरह सलेटी था। बादल आखिर उनके भाई ही तो थे। बादलों की तरह हाथी भी
आसमान में जंहा चाहे उड़ सकते थे। बस उन्हे अपने कान फटफटाने की देर थी।
बादलों की ही तरह अपना
आकार भी बदल सकते थे। वे जो चाहे बन जाते थे- कभी एक राक्षस तो कभी
छोटी-सी-बिल्ली। वे कभी किले की तरह दिखते तो कभी पहाड़ की तरह और दौड़ते हुए एक
कुत्ते की तरह।
गर्मियों के मौसम में
एक दिन मोती की तरह चमकते हुए सलेटी हाथी धूप में उड़ रहे थे। वे एक गांव के ऊपर
से गुजरे जहाँ छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे, एक खेत से गुजरे जहां किसान जुताई कर रहा था, एक नदी पर से गुजरे जहां लड़के भैंसों को
नहला रहे थे। वे बातूनी बंदरों से भरे एक जंगल के ऊपर से भी गुजरे।
लेकिन आकाश में बहुत
ऊपर बड़ी गर्म हवा की एक लहर बह रही थी । हाथियों को देख कर वह उनके पीछे हो ली
और सीधे उनकी संूड़ में धुस गई। हवा
क्या थी, काली मिर्च थी। हाथी
लगे छींकनें। छींकते-छींकते परेशान होकर उन्होने सोचा कि कोई छायादार ठंडी जगह
ढूंढ कर थोड़ी देर सुस्ता लें। उनके ठीक
नीचे आम के बड़े बड़े पेड़ थे। उनके नीचे ठंडक थी, छाया भी थी और आमों की बढि़या खुशबू भी। गर्म हवा से बचने
के लिए हाथी अहिस्ता से आम के सबसे बडे़ पेड़ पर जा उतरे।
संयोग की बात थी कि उसी
पेड़ के नीचे एक मास्टर जी और उनके छात्र बैठे हुए थे। स्कूल के अन्दर उस दिन
बहुत ज्यादा गर्मी थी। मास्टर जी थके हुए थे और बच्चे थे एकदम बेचैन। वे अपनी
पैंसिले तोड़ते, सारे सवाल गलत
करते, फिर खुसफुसाते, हंसते और नन्हे चूहों की तरह कुलबुलाते। वे
एक क्षण को आराम से नही बैठ पा रहे थे।
मास्टर जी परेशान हो गए
। पैर जमीन पर ठोक कर उन्होने अपना डंडा हवा में घुमाया और बच्चों पर बरस पडे़ं
तभी अचानक उन्हे खयाल आया- ’अगर ये बच्चे नही संभलते है तो मैं एक जादूमंत्र बोल
कर इन सबको खरगोश बना दूँगा!’
उन्होने सबसे ’शरारती
बच्चे को पकड़ने के लिए अपनी बांह बढाई । उसी समय हाथी आसमान से नीचे उतरे और
अध्यापक के ठीक ऊपर वाली डाल पर आ बैठे।
अर्र.... र.... र...
र.... कर्र.... र.... र.... धड़ाम!
डाल टूट कर मास्टर जी
पर आ गिरी। मास्टर जी गिर पड़े, पर हाथियों ने
इसकी कोई परवाह नहीं कीं वे चुपचाप अपने कान फटफटा कर अगले पेड़ की तरफ चल दिए।
उन्हे उड़ कर जाता देख
अध्यापक उठ खड़े हुए और हाथियों पर चिल्लाए - ’बुरे हाथियों! मै तम्हे मज़ा
चखाता हूँ। मुझे गिराने की हिम्मत! मै तुम्हे अभी बताता हूँ। अध्यापक ने अपना
डंडा धुमाया और जादूमंत्र बोला।
धीमे से सारे हाथी जमीन
पर उतर गए। वे उड़ना भूल गए । और उस दिन से हाथी जमीन पर चलते है। जब वे आसमान में
बादलों को उड़ता देखते हैं, उन्हे वह जमाना
याद आता है, जब वे खूद उड़
लेते थे, जैसे चाहे दिखाने लगते
थे, जहां चाहे चले जाते थे।
|
5. जीवन को प्रस्तुत करना
भाषा का यह काम
उसके सारे अन्य कामों में शामिल हैं पर यदि हमने उसे अलग से नही जांचा तो सम्भव है
हम उसे चूक जाएं । बड़ो की तरह बच्चे अक्सर भाषा का प्रयोग बीते हुए को याद करने
लिए करते है- कई घटना, व्यक्ति या कोई
छोटी-मोटी चीज़। जो चीज़ अब हमारे आसपास है, उसे हम शब्दों के जरिए फिर पैदा कर सकते है और इस तरह हम जो
रचते है वह कई बार इतना यथार्थ दिखाता है कि हम उस पर लम्ब समय तक बातचीत कर सकते
है।
बच्चे अक्सर
चीज़ो और अनुभवों को इसलिए प्रस्तुत करते है कि उन्हें स्वीकार कर सके (शायद किसी
गहरे भावनात्मक स्तर पर)। किसी चीज़ से डरा हुआ बच्चा उसके में वीसियो बार बताता
है जब तक वह अपने भीतर उसके लिए जगह नहीं बना लेता। खास तौर से जब बच्चा किसी नई
बात से चैंकता है तो उसे आम अनुभवों में शामिल करने के उद्देश्य से कई बार दोहराता
हैं। चांैकाने वाली घटना में जो अनिश्चय, भ्रम और कई बार डर छिपा रहता है, वह उसे दुहराने से दूर हो जाता है।
6. जुड़ना
जब हम किसी की
कहानी सुनते है- जो उसके अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के अनुभव पर आधारित होती-तो
हम उस कहानी के चरित्रों और घटनाओं से स्वंय को जोड़ने की कोशिश करते है। कहानी से
जुड़ने की खातिर हम अपनी मौजूदा जिन्दगी और यहां तक कि अपनेे पिछले सीमित अनुभवों
को लांध जाते है। जब कोई बच्चा किसी खिलौने की भावनाओं की चर्चा करता है वह स्वयं
को खिलौने की स्थिति में रखा रहा होता हैं दूसरे पर क्या बीत रही है, यह हम भाषा के जरिए अनुभव कर सकते हैं।
7. तैयारी
बातचीत का विषय
बहुत बार ऐसी घटनाएं होती है जो अभी घटी नही है और उनमें कुछ ऐसी भी होती हैं जो
शायद कभी न घटे। बच्चे कई बार अपने डर, अपनी योजनाएं, अपेक्षाए और अजीब
परिस्थितियों में क्या होगा, इस पर अपने विचार
प्रकट करते हैं। भविष्य की तस्वीर रचने में शब्द उनकी मदद करते है। कभी-कभी यह
तस्वीर भविष्य को साकार बनाने में मदद करती है कभी ऐसा भी होता है कि यह तस्वीर
उन्हे भविष्य का सामना करने की सामथ्र्य देती है।
8. पड़ताल और तर्क
हरेक स्थिति में
एक ’समस्या’ छिपी होती है जिसे हल करने के लिए छोटे बच्चे को यह ढंूढना पड़ता है
कि अमुक चीज़ अपने मौजूदा रूप में ’क्यों’ है। कई प्रश्न ऐसे होते है जिसका उत्तर
छोटा बच्चा सफलतापूर्वक ढूंढ सकता हे।
जैसे, बस एकाएक क्यों
रूकी ? या उसे ठंडे पानी से
नहाना क्यों पसन्द नहीं है ? तीन साल का बच्चा
इन ’समस्याओं’ को समझ सकता है, हालंकि यह जरूरी नहीं कि सब बच्चे किसी बात का
सटीक कारण साफ-साफ बतला सकें। प्रायः वे बच्चे ऐसा कर पाने में समर्थ होते है
जिन्होंने बड़ो को भाषा के सहारे किसी चीज की पड़ताल करते सुना हो अथवा जिन्हें
ऐसा करने के लिए प्रोत्साहन मिला हो।
ऊपर दी गई
समस्याओं के अलावा कई समस्याएं ऐसी होती हैं जिन्हें छोटा बच्चा ’वैज्ञानिक’ अर्थ
में नहीं सुलझा सकता। उदाहरण के लिए ’बारिश’ क्यों होती है ’बहुत तेज हवा से पेड़
क्यों गिर जाता है जैसे सवालों का सही हल चार - पांच वर्ष के बच्चे की पहुंच के
बाहर है। इसके बावजूद, ऐसी समस्यांए भी
पड़ताल के लिए भाषा के प्रयोग के बहुत उम्दा मौके उपलब्ध करा सकती है। इससे फर्क
नहीं पड़ता कि दिया गया कारण सही है या नही। महत्व इस बात का है कि बच्चा भाषा का
इस्तेमाल तर्क करने, किसी नई बात को
बुझाने के लिए करे। भाषा से यह काम लेते बड़ों को कोई बच्चा जितना अधिक सुनेगा,
भाषा का यह काम उतना ही बच्चे की पहुँच के भीतर
आता जाएगा।
भाषा के जिन आठ
कामों की चर्चा अभी हमने की है, क्या आप उन्हे
पहचान सकते हैं? अपनी परीक्षा
लेने के लिए बच्चों की बातचीत के इन आठ उदाहरणांे को भाषा के आठ कामों के तहत
रखिएः
1. बादल चले गए। बारिश रूक गई।
2. मैं जाऊंगा जम्मा। वहां मिलेगा मम्मा।
3. इस तरह नहीं। ये देखों घंुडी।
4. पानी रोज़ सवेरे इतने सारे घरों में कैसे
पहंुचे जाता है ?
5. मैं इस कप को यहां रखूंगा। फिर रामू को आवाज
दूंगा।
6. वे मिठाइयां बिलकुल वैसी हैं जैसी जीत चाचा लाए
थे।
7. दीवाली पर मुझे नई कमीज मिलेगी।
8. बिलकुल बाजार जैसा था। इतनी सारी बत्तखें इतना
शोर मचा रही थी।
उत्तरः 1.
समझाना 2. खेलना 3. दूसरों के काम व
ध्यान का संचालन 4. पड़ताल 5.
अपने काम का संचालन 6. जुड़ना 7. तैयारी 8.
जीवन को प्रस्तुत करना
हमारी बात का असर
हम पर ही पड़ता है
बच्चों के जीवन
में भाषा की विभिन्न जिम्मेदारियों की इस चर्चा से एक बात स्पष्ट होती है कि भाषा
एक बेहद लचीला माध्यम है। हम उसे जीवन की किसी भी परिस्थिति के अनुसार ढाल सकते
है। उसे अपनी जरूरत के अनुसार ढाल कर हम किसी भी परिस्थिति को भी अपने अधिक अनुकुल
बना लेते है। रोजाना की जिन्दगी में इसके उदाहरण ढूंढे जा सकते है। जब हम किसी से
नाराज़ होते है तो अपने गुस्से को प्रकट करने के लिए शब्द व स्वर चुनते हैं जो
परिस्थिति पर हमारी इच्छा के अनुसार असर डालें। लड़ने की इच्छा हो तो हम कड़े
शब्दों का प्रयोग करते है मामले को शांत करना हो तो नरम शब्दों और धीमें स्वर से
काम लेते हैं।
हम कह सकते है कि
भाषा को लचीले ढंग से इस्तेमाल करने की क्षमता काफी हद तक यह तय करती है कि जीवन
की विभिन्न स्थितियों का सामना हम किस तरह करेंगे। एक स्तर पर हमारी भाषा किसी
स्थिति मे हमारी प्रतिक्रिया प्रकट करती है। एक अन्य स्तर पर हमारी भाषा उस स्थिति
को, जिससे हम जूझ रहे हैं,
प्रभावित करती है। हमारे इर्दगिर्द हर वक्त जो
कुछ हो रहा है, भाषा उस सबसे निपटने में हमारी सहायता करती है। हम चाहे उस
सब में स्वयं शरीक हो या सिर्फ उस पर विचार कर रहे हों, भाषा की मदद हमें दोनों दशाओं में मिलती है।
हम किसी घटना के
प्रत्यक्ष हो या न हों, उस घटना को
प्रस्तुत करने के लिए इस्तेमाल की गई भाषा हमारी प्रतिक्रिया पर असर डालती है।
हजारांे चीजे़ रोज़ हमसे बहुत दूर स्थित जगहों पर होती रहती है। ये चीजे़ हम तक
अखबार की खबर के रूप में पहुचती है। एक तरह से अखबार हमें किसी घटना की तस्वीर
बनाने में मदद देता है । उसी तरह जैसे एक बच्चा सड़क पर कोई चीजे़ देख कर अपनी मां
को बताए। अखबार या बच्चे द्वारा बनाई तस्वीर उतनी ही वास्तविक या सटीक होगी जितनी
सटीक तस्वीर बनाने के लिए प्रयोग की गई भाषा होगी। कोई बयान कितना सटीक या सही है,
यह प्रायः बयान देने वाले के इरादे पर निर्भर
होता है- यानी सटीकता में हमेशा कमी-बेशी रहना स्वभाविक है। यदि बच्चा एक दुर्घटना
देख कर डर गया है तो सम्भव है कि वह उसे कुछ बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करे। बढ़ा-चढ़ा
कर कहने से वह अपने डर का औचित्य सिद्ध करता है इस तरह उस दृश्य से, जिसे उसने देखा है, समझौता करने में समर्थ होता है।
आखिर बात यह है
कि भाषा हमारी अपेक्षाओं पर असर डालती है। चीजों को धैर्यपूर्वक क्रम से समझाने का
शौकीन आदमी दूसरों से ऐसी ही अपेक्षा करता है। इसी प्रकार चीजों की गहराई से
पड़ताल करने वाला व्यक्ति उम्मीद करता है कि दूसरे उसकी पड़ताल में रूचि लंेगे। इस
तरह के व्यक्ति पड़ताल और व्याख्या के लिए भाषा का प्रयोग करके एक ऐसा वातावरण
रचते हैं जिसमें व्याख्या और पड़ताल
महत्वपूर्ण काम माने जाते है। इसके विपरीत यदि किसी संस्था या समुदाय में
भाषा का प्रयोग इन उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता हों तो वहां बडे़ हो रहे बच्चों
को ध्यान से कोई बात समझाने या धैर्यपूर्वक तर्क करने की आदत शायद की पड़ सके। यदि
माता-पिता और अध्यापक भाषा का इस्तेमाल मुख्यतः बच्चों को नियंत्रण में रखने के
लिए करते हों तो यह स्वाभाविक है कि बच्चे भाषा को नियंत्रण का साधन मानने लगेंगे।
यह बहुत सम्भव है कि बडे़ होकर वे ऐसा कोई काम न करना चाहें जिसके लिए उन्हें आदेश
न दिया गया हो।
हमने इस अध्याय
की शुरूआत इस प्रश्न के साथ की थी भाषा बच्चे के व्यक्तित्व-उसकी दृष्टि, क्षमताओं, मनोवृत्तियों, रूचियों और मूल्यों को कयों प्रभावित करती है। इस प्रश्न का उत्तर अब हम यह कह
कर दे सकते हैं कि भाषा बच्चे के व्यक्तित्व को इसलिए प्रभावित करती है क्योंकि
बच्चा भाषा द्वारा रचे गए वातावरण में जीता और बड़ा होता है। इस वातावरण को बनाने
में अध्यापक काफी योग देता है। यदि अध्यापक बच्चे के जीवन में भाषा के विभिन्न
कार्यक्षेत्रों के प्रति संवेदनशील है तो वह बच्चे की बौद्धिक और भावनात्मक
जरूरतों के अनुकूल कदम उठा सकता हैं अलग-अलग अवसरों पर बच्चे द्वारा प्रयोग की गई
भाषा पर अध्यापक की प्रतिक्रिया बहुत महत्वपूर्ण होती है। यदि प्रतिक्रिया दिखाती
है कि अध्यापक बच्चे द्वारा एक खास ढंग से प्रयोग की गई भाषा का उद्देश्य समझ रहा
है तो एसी प्रतिक्रिया भाषा-प्रयोग के उस ढंग को और समृद्ध बनाएगी। इसके विपरीत
यदि अध्यापक की प्रतिक्रिया ’सही’ और ’गलत’ के सम्बन्ध में किन्हीं धारणाओं पर
आधारित हो तो वह बच्चे की स्वतंत्र अभिव्यक्ति और संवाद-क्षमता के रास्ते में बाधा
खड़ी करेगी।
(प्रो0 कृष्ण कुमार की पुस्तक ’बच्चे की भाषा और अध्यापक’ से
साभार)